वर्षा ऋतु भाय रही हर मन , उत्सव सी मनाय रही है धरा |
बुँदे जिमि पायल सी रुनझुन , चहुँ ओर उड़ाय रहे बदरा ||
मदमस्त हुए सब जीव बहुत , धरती लहराय रही अंचरा |
नव अंकुर फूट रहे थल पे , दादुर अब देई रहे पहरा || १||
कर ताल - तलाई रहे संगम , सरिता निज सिंधु समाय रही |
नभ प्यास बुझाय रहा बसुधा , तरुवर से लता लिपटाय रही ||
बगियां में मोर है नाचि रहे , अरु कोयल गीत सुनाय रही |
जिनके हैं पिया परदेश बसे , रही रही के वो अकुलाय रही || २||
कृषिराज जी खेती किसानी करें , जन ग्वालन धेनु चराय रहे |
धान रोपाई करें सखियाँ अरु , बगुले नित ध्यान लगाय रहे ||
हरियाली चारिहुँ ओर भई , दिनकर जी लुकाय छिपाय रहे |
कभी मध्यम तेज बयार चले , तरु शाखा हिलाय डुलाय रहे || ३||
मृदंग बजाई रहे बादल , ईन्दर जी बिजुरी चमकाय रहे |
छपरी जिनकी है टूट रही , रहि रहि के वो बिलखाय रहे ||
बरसे मेघा जबहीं दिन में , बस बैठि के सबही बिताय रहे |
सब खाई रहे भजिया - गुझिया , अरु जोड़े तो खूब मोहाय रहे || ४ ||
मोहन श्रीवास्तव ( कवि )
रचना क्रमांक ;-1083