और ना ही कठोर सजा होगी ।
तो एक दामिनी की बात हि क्या,
और कई दामिनी बे - परदा होंगी ॥
ये तो हादशा दिल्ली मे था,
जहां सबकी आंखों ने देख लिया ।
पर कई हादशे ऐसे होते हैं,
जिन्हें हमने नही महशुश किया॥
कितने ज़ुल्म ढहाए जाते हैं ,
उन माशुम, सरल , अबलावों पर ।
घुट - घुट कर जीती रहती हैं,
ऐसा समाज, जो है पत्थर ॥
उन माशुमों के आबरु के बदले,
उन्हे मौत की सजा दिया जाये ।
जिसे देख के और कोई गलती न करे,
उन सबसे भी हिसाब लिया जाये॥
इन सबके साथ- साथ ,
हमे अपने पर भी नियन्त्रण रखना होगा ।
पश्चिमी सभ्यता को भुला करके ,
हमे भारतीय संस्कृति के आवरण मे रहना होगा ॥
जब तक कानून सख्त नही होंगे,
और ना ही कठोर सजा होगी ।
तो एक दामिनी की बात ही क्या,
और कई दामिनी बे-परदा होंगी ॥
मोहन श्रीवास्तव (कवि)
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रचनांकन दिनांक-२०-१-२०१३
रविवार ,शाम -७ बजे