जो दुश्मन की चाल ना थे समझ पाए ।
मीठा जहर वो पिला रहा था,
उसकी बातों को वे ना समझ पाए॥
कर रहे थे यात्रा बस से वे,
उसका पिछला इतिहास नही देखे ।
उसकी कुटिल मुस्कानों के पिछे,
कांटों का झाड़ नही देखे ॥
आखें खुली थी हमारी तब,
जब दुश्मन अन्दर घुस आए ।
कुंभकर्ण की नींद मे सोए थे हम,
जब आखें खुली तो पछताए ॥
पर मार भगाये थे हम उनको,
तब अपनी भुमि छुड़ाये थे हम ।
अपने कुछ वीरों की आहुति देकर,
सीमा पर तिरंगा फहराये थे हम ॥
तब पाकी समझ गये थे कविवर को,
कोमल है ,पर कठोर भी है ।
दोस्तों के लिए वो दोस्त है,
पर दुश्मनों के लिये तो वो बोझ भी है ॥
मोहन श्रीवास्तव (कवि)
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rewised
on,22-06-2013,saturday,
raipur,chhattisgarh.