ये तो बसंत ऋतु का मौसम,
बिरहा के मन मे आग लगाये ।
दिन तो जैसे-तैसे कट जाता,
पर बैरिनि रात सताये ॥
हरे-भरे ये बाग-बगीचे,
और मदमस्त आम की अमराई ।
गेहूं की हरी-हरी बाली,
जिसमें मटर की लता है उलझाई ॥
हरे-हरे ये चने की खेती,
फूली सरसो दिल को भाये ।
पक्षियों की टोली कलरव करती,
और कोयल मधुर गीत मे है गाये ॥
सबको मस्त हुआ देखकर,
महुआ रह-रह के ललचाये ।
चम्पारानी के फूलों की ओर,
गुलाबराज जी अपनी डाल बढ़ाये ॥
जोड़ों का तो मन प्रसन्न है,
सब मन ही मन मुस्कायें ।
पर बिरहा का तो मन उदास है,
ये बसंत ना उसे सुहाये ॥
पर बिरहा का तो मन उदास है,
ये बसंत ना उसे सुहाये.....
मोहन श्रीवास्तव (कवि)
10-02-2014,Monday,05:15pm,(749)
Pune,M.H.
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