"शिव ताण्डव स्तोत्र" हिंदी भावानुवाद
उमेश बाँध के जटा, बहाय गंग शुद्ध है।
भुजंग माल कंठ में, लगे अतीव क्रुद्ध है।।
डमट् डमट् डमट् डमट्, निनाद नाद हैं करे।
विचित्र रौद्र नृत्य से, त्रिलोक देवता डरे ।।1।।
मुझे सदैव आपसे, कृपा कटाक्ष आस है।
मुझे अपार शक्ति दो, मलेच्छ देत त्रास हैं।।
ललाट अग्नि ज्वाल है, उमा सदैव संग है।
सुधांशु शुभ्र माथ में, नदीश्वरी तरंग है।।2।।
प्रसन्नता सदा मिले, सुसिद्ध ओम जाप में।
समस्त लोक आदि हैं, समाय नाथ आप में।।
सुहाग शैलपुत्रि के, समस्त व्याधि जारते।
समस्त दिव्यलोक को, बिना अधार धारते।।3।।
भुजंग रक्त साँवले, मणी प्रभा बिखेरते।
व दिग्दिगंत देवियाँ, सुवर्ण को उकेरते।।
दुशाल दीप्त आपका, बना गजेंद्र खाल से।
गला लगे लुभावना, सजे कराल व्याल से।।4।।
सदा करे सुखी मुझे, किरीट इंदु आपका।
फणीश गुच्छ हार से, निबद्ध, केश आपका।।
न खोज ब्रह्म देवता, व विष्णु पाय मूल को।
अनन्य भाव से भजे, सुधार पूर्व भूल को।।5।।
अनंत हो अपार हो, प्रसन्न पूर्णकाम हो।
समस्त सृष्टि व्यष्टि में, यथेष्ट हो ललाम हो।।
उरुज्झ केश की जटा, करे सुसिद्धि कामना।
मनोज भस्म हो गया, किए कुचेष्ट भावना।।6।।
विभोर भक्तिभाव से, तुम्हे सभी पुकारते।
कराल भाल पट्टिका, डगद् निनाद धारते।।
उमा कुचाग्र पत्र पे, विचित्र चित्र खींचते।
कलानिधान देवता, विभिन्न रंग सींचते।।7।।
सदा सुखी किये प्रभो, उठाय लोक भार हो।
समस्त ज्ञान स्तोत्र हो, पुराण वेद सार हो।।
पयोधि से ढका गला, अमावसी निशा लगे।
मनोरमा नदीश्वरी, सदा रहे जटा पगे।।8ll
उमेश प्रार्थना करूंँ, हरो समस्त पाप को।
सुनो अनाथ दीन के, विलाप को प्रलाप को।।
मिटे न कष्ट लोक के, बिना दयालु आपके।
दरिद्र दैन्यता हरो, प्रशांत वृत्ति छाप के।।9।।
करूंँ महेश वंदना, जिसे सुहाय भ्रामरी।
कदंब पुष्प से बहे, गिरीश शीश माधुरी।।
पछाड़ मृत्युदेवता, महागयंद मारते ।
सदैव आप भक्त की, सभी क्रिया सँवारते।।10।।
करें निनाद ढोल से, ढिमीड् ढिमीड् बजा बजा।।
महेश ओम मंत्र को, उवाचते महा मुदा।।
विराज अग्नि भाल पे, करे महा प्रकाश है।
सितांशु भाल डोलता, भुजंग निःश्वास हैं।।11।।
तृणादि नील पुष्प या, अराति मित्र फूल में।
समान भाव आप हैं, पहाड़ काष्ठ धूल में।।
नरेश या प्रजा रहे, समान भाव आप हैं।
उपास जो करे प्रभो, मिटाय पाप ताप हैं।।12।।
नदीश्वरी कगार के, गुफा रमें रहूँ प्रभो।
उठाय हस्त आर्त हो, उबारने कहूँ प्रभो।
करो विशुद्ध चेतना, निदान हेतु दोष के।
लुटा अनंत दीप्ति को, अथाह शंभुकोश के।।13।।
सदैव पूज्य आप हैं, सुरारि आदि वृंद से।
सुदीप्त हैं सुशांत हैं,महेश अर्धचंद्र से ।।
भभूत भस्म गात है, पिशाच भूत साथ है।
धरे त्रिशूल हाथ है, त्रिपुंड नाथ माथ है।।14।।
भजूंँ गिरीश आपको, रटूँ सदैव नाम मैं।
कृपा कटाक्ष होय तो, पड़ूँ न लोभ काम मैं।।
सदैव मंत्र को रटू, शरीर सौंप आपको।
सदा महेश आपके, सुनूँ गुनूँ प्रताप को।।15।।
कवि मोहन श्रीवास्तव
No comments:
Post a Comment