जीवों को खाना महापाप,
सभी जीवों को प्राण तो प्यारे हैं !
हम उन बे-कसूरों को मार-मार,
बन गए कितने हत्यारे है !!
देते है बहुत दान-दक्षीणा,
मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारे मे !
परोपकार भी करते कभी-कभी,
पर हम कितने हत्यारे है !!
यदि हमे दर्द पहुंचाए कोई,
उठता दिल मे दर्द हमारे है !
हम अपनी जान बचा लेते,
पर हम कितने हत्यारे है !!
बगुला- भगत बन कर के हम,
जीवों का खून बहाते है !
मुख से करते राम-राम,
पर अंदर से हम हत्यारे है !!
ब्रत-उपवास को करते हम,
और देवों पर फ़ूल चढ़ाते है !
पर-जीवों का भक्षण करके,
हम बन गए कितने हत्यारे है !!
मोहन श्रीवास्तव (कवि)
www.kavyapushpanjali.blogspot.com
रचना की तारीख-१४/०१/२००१, वुद्धवार, सुबह-१०.५० बजे,
थोप्पूर घाट,धर्मपुरी,(तमिलनाडु)
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