एक सुन्दर सी कली
सोचती जा रही थी चली
ऊम्र कोई सोलह साल
खिलने मे थे दो-चार-साल
वह अपनी धुन मे सनी
चली जा रही कोई हिरनी
उसकी सुन्दरता थी अपार
वर्णन कर सकू नही यार
वह थी कितनी शर्मिली
जैसे कोई फ़ूल चमेली
उसकी वो हसीन मुस्काने
चाहते उसको सभी थे पाने
उसकी यौवनाए छलकती
जैसे शिशे मे झलकती
उसकी कैसी थी अदाएं
याद आते वो हवाए
वह दोपहर का समय था
जेठ की धूप का तपन था
उसके पिछे सैकड़ों पड़े थे
कोई-कोई रह मे खड़े थे
वह किसी से कुछ न बोले
चली जा रही थी हौले-हौले
लाल चीर मे थी लिपटी
जैसे लाज मे हो सिमटी
कुछ दूर तक वो आगे बढ़ी
अचानक पिछे को मुड़ी
वह गर्मी से थी आकुल
प्यास से थी व्याकुल
उसने कुछ धीरे से कहा
शायद उसका गला सुख रहा
सब उसकी तरफ़ हो दौड़े
सभी स्नेह का चादर ओढ़े
वह कही प्यास-प्यास
पर वहा पानी की थी न आश
वह इतना कहकर हुई अचेत
जैसे सुखे गन्ने के खेत
कोई कहे पानी लावो
इसकी प्यास बुझावो
पर कोई नही हिला
जैसे कोई शिला
सबको उसे देखने की चाह
सब भरे उसको देखकर आह
सभी की एक ही आश
कैसे बने ए मेरी श्वाश
वह तड़पती रही प्यास-प्यास
त्यागती रही जिवन की आश
सभी खड़े थे मुह लटकाए
जैसे किसी को फ़ांसी लग जाए
वह थी अब निः श्वाश
पूरे हो गए उसके प्यास
उसके भी रहे होगे कुछ सपने
जीती तो वे होते अपने
हाय यह कैसा जमाना
सभी हो गए जनाना
मोहन श्रीवास्तव
दिनांक-१२/४/१९९१
एन टी पी सी दादरी गाजियाबाद (उ.प्र.)
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