जटाओं में गंगधार ,चंद्र सोहे है कपार ,
अपने शरीर भर भभूती रमाये हैं |
खा रहे प्रभू धतूर , भंग के नशे में चूर ,
कण्ठ में हलाहल बिष को समाये हैं ||
नंदी बैल पे सवार , जगत के भरतार ,
डम -डम- डम- डम डमरू बजाये हैं |
कालों के भी महाकाल , तन पे हैं बिच्छू ब्याल ,
मोहनी नजर डार जग को रिझाये हैं ||
मोहन श्रीवास्तव ( कवि )
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