चाह नही मुझे ऐसी भेंट का, जब राहों में मैं फेंका जाऊं । मैं तो अपनी डाली में मस्त हूं, जहां हंसते हंसते मैं मर जाऊं ॥ ईनाम पुरष्कारों की नही चाह, जब नहीं मिले तो दुःख पाऊं । मैं तो अपनी डाली में मस्त हूं, जहां हंसते हंसते मैं मर जाऊं ॥ चाह मुझे उन अच्छे ईंषानों का, जिनके दिल मैं बस जाऊं । चाह मुझे उन सत्य पथिक का, जिनके चरणों में मैं चढ़ जाऊं ॥ चाह मुझे उन हवाओं का, जब मैं खुशबू उनके संग बिखराऊ । चाह मुझे भगवान के चरणों का, जहां हसते हसते मैं चढ़ जाऊं ॥ मोहन श्रीवास्तव (कवि)
Wednesday, 18 January 2023
"अष्टपदी छंद" (वर्णिक) "शिव स्तुति" भगत जपत शिव शंकर, अभयंकर हे। अजर अमर अहि हार,जय जय शंभु हरे।।१।। शशिधर विषधर सुंदर, सुख सागर हे। हरि उर बसत गिरीश,जय जय शंभु हरे।।२।। अखिल जगत शिव पूजित, भव तारत हे। हरत जगत सब व्याधि,जय जय शंभु हरे।।३।। पितु गजवदन उमापति,प्रिय लागत हे। रतिपति हति गति देत, जय जय शंभु हरे।।४।। विपत हरत दुख टारत, खल मारत हे। सिर तव चरन नवात,जय जय शंभु हरे।।५।। प्रबल गरल गर धारत, दुःख टारत हे। अहिगन कर फुफकार, जय जय शंभु हरे।।६।। दिनकर हिमकर पावक, तव नैनन हे। विनय करत तव दास, जय जय शंभु हरे।।७।। विमल धवल तव मूरत, खुबसूरत हे। भजन करत दिन रात, जय जय शंभु हरे।।८।। कवि मोहन श्रीवास्तव
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