छंद:- बसन्त तिलका
लाला ललाल ललला, ललला ललाला
वागीश्वरी विनय मैं, करता तुम्हारी।
बैठी मराल पर हो, जननी उदारी।।
हे ब्रह्मदेव गृहणी, गुण ज्ञान धारी।
विद्या तथा विनय दो,शुभ लाभ कारी।।१।।
है कंठ में स्फटिक की, शुचि दिव्य माला।।
हो श्वेत वस्त्र पहनी , मुख में उजाला।।
धारे किताब कर में , शुभ कर्ण बाला।
माथा किरीट मणि है, छवि है निराला।।२।।
लेके सितार कर में, विमला बजाती।
पाजेब साज पग में, करुणा लुटाती।।
भौंहें विशाल दृग के, जग को लुभाए।
दाती पुकार सुनके, झट दौड़ आए।।३।।
दो ज्ञान बुद्धि मुझको, विपदा निवारो।
मां लेखनी सफल हो, दुख क्लेश टारो।।
दाती दयालु रहके,भव से उबारो।
हे शांत चित्त मइया, सब पाप जारो।।४।।
है आश मातु तुमपे, बनना सहारा।
कोई नहीं जगत में, यह बेसहारा।।
जानूं न ध्यान करना, लिखना न आता।
ना ज्ञान राग सुर का, लय में न गाता।।५।।
देवी कृपालु रहना, यह है भिखारी।
दो भक्ति शक्ति अपनी, बनके अधारी।।
मैं गीत नित्य रचके, तुमको सुनाऊं।
मां भक्ति भाव हिय में, रख गीत गाऊं।।६।।
मोहन श्रीवास्तव
खुश्बू विहार कालोनी अमलेश्वर दुर्ग छत्तीसगढ़
१७.०२.२०२४, शनिवार, १२.५० दोपहर
रचना क्रमांक १३९९
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