Friday 23 February 2024

छंद:- बसन्त तिलका "आया बसंत धरती, मदमस्त भारी"

छंद:- "बसन्त तिलका"
लाला ललाल ललला, ललला ललाला 

आया बसंत धरती, मदमस्त भारी।
फैला सुगंध नभ में , बहती बयारी।।
पीले प्रफुल्ल सरसों , दृग मोद कारी।
गेहूं मिले मटर से, नर संग नारी।।१।।

फूले पलाश तरु के, मन को लुभाए।
धानी सजीव धरती , पर काम आए।।
छाये रसाल पर हैं, शुचि बौर प्यारे।
है सौम्य प्रेम टपके, रसयुक्त न्यारे।।२।।

जोड़े लगे चहकने, ऋतु राज आया।
सारे धरा गगन में, रतिकांत छाया।।
कालापिनी सुरभि के, नवगीत गाए।
बोली सुरम्य लगती, सब जीव भाए।।३।।

प्रेमी लगे संवरने, प्रिय को रिझाएं।
नैना तकें सजन को, जिस राह आए।।
तालाब ताल तरिया, अरु जीव सारे।
व्यापें मनोज सबमें, निज छाप डारे।।४।।

फूले प्रसून क्षिति में, महके कियारी।
चूसें पराग भंवरे, इतराय भारी।।
आमोद भूमि पसरा, मन मोर नाचे।
झूमें लता विटप हैं, कवि गीत बांचे।।५।।

कवि मोहन श्रीवास्तव
खुश्बू विहार कालोनी अमलेश्वर दुर्ग छत्तीसगढ़
दिनांक १७.०२.२०२४, समय सांयकाल ७ बजे

रचना क्रमांक १४००


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