गूंज रहा था चीत्कार दिशाओं में,
जहां काल ने गाल फैलाए थे ।
उस प्रलयंकारी दैवी उफान ने,
अपने लहरों का कफन पहनाए थे ॥
छ्ब्बीस दिसम्बर की वो सुबह,
जो बर्बादी लेकर के आया ।
पल भर में उन मासूमों पर,
कुदरत ने कहर है बरसाया ॥
जहां कई हजार जानें हैं गई,
और कितनों का घर तबाह हुआ ।
कितने-कितने लापता हुए,
और कितनों का बुरा हाल हुआ ॥
संयोग से जो बच गये थे उसमें,
वे अपनों-अपनों को ढूढ़ रहे ।
पर उनका मिल पाना मुश्किल था,
जो समुद्री लहरों में ही थे बहे ॥
वह उफान नही शैतान था वह,
जहां मौत ने नंगा नाच किया ।
उन गरीब बेकसुरों का,
सब कुछ तो है बर्बाद किया ॥
वहां के दर्दनाक दृश्यों को देख-देख कर,
पत्थर सा कलेजा कांप उठता है ।
अनायास आंसू निकल जाते,
करुणा दिल मे है भर उठता ॥
उनके घावों को भरने के लिये,
हमें प्यार का मरहम लगाने होंगे ।
जिस तरह से उनके दुःख कम हों,
हमें वही काम करने होंगे ॥
वैग्यानिक चमत्कार सारे धरे रह गये,
जहां प्रकृति ने प्रहार है कर डाला ।
नये साल में जाने का सपना,
उन मासूमों का ध्वस्त है कर डाला ॥
खुद को आगे हम कितना बढ़ा लें,
पर कुदरत के आगे कमजोर हैं हम ।
आए हैं तो जाना ही पड़ेगा,
किसी विग्यान से नहीं बच सकते हैं हम ॥
आए हैं तो जाना ही पड़ेगा,
किसी विग्यान से नहीं बच सकते हैं हम.....
मोहन श्रीवास्तव (कवि)
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27-12-2004,Monday,08:40Pm,(543),
ChinchBhuvan,Khapri,Nagpur(M.H)