भंग के रस को पी के यारों,
होली खूब मनावो !
रहते हो धरती पे तुम,
पर आकाश मे उड़ते जावो !!
शिव-भोले की बूटी है ये,
पियो और पिलावो !
रंग -बिरंगी होली को,
हसते हुए मनावो !!
गले मिलो तुम उन लोगों से,
जो दुश्मन तुम्हे समझते हैं !
रंग लगावो प्यार से उनको,
जो बिन बादल के बरसते हैं !!
चार दिनों का जीवन है अपना,
हंस- मिल के इसे गुजारो !
नफ़रत को जड़ से मिटा करके,
प्यार से इसे संवारो !!
होली के रंगो जैसे ही,
अपने दिल से दिल को मिलावो !
ईन्षानियत की राह पे चलके,
दुश्मन को भी गले लगावो !!
मोहन श्रीवास्तव (कवि)
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१३-३-२०००,चंद्रपुर महा.