आपके शहर में,
इक अन्जान सा मुशाफिर हूं,
राह चलते हुए
वे समझते हैं कि मैं एक कातिल हूं
दूर रहता हूं तो वे
पत्थर मुझपे बरसाते हैं
पास जाता हूं मैं तो
गले से वे लगाते हैं
मेरे कंधे से टंगी झोली को
वे बारूद समझ बैठे
पास आते तो उन्हें
गीतों की फुलझड़ियां मिलती
यहां मैं आया था तो
मेरे हाथों में
बस एक कलम और कागज था
आपने हमे एक
कवि का रूप दे डाला
कौन कहता है कि
मैं कातिल नहीं हूं
शहर के हर गुनाह मे
मैं शामिल जो हूं
हां मैं एक कातिल ही हूं
जिसने तलवार या गोली नहीं मारा
बस अपनी चंद रचनावों से
आपके दिलों में घाव कर डाला
बस अपनी चंद रचनावों से
आपके दिलों में घाव कर डाला
मोहन श्रीवास्तव (कवि)
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01-03-2001,thursday,11:05am,(467),
kerala
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