छन्द : "पञ्चचामर"
(श्री दुर्गा ताण्डव स्तोत्र)
सवार सिंह चंडिका अतीव क्रुद्ध जो चले।
प्रचण्ड रूप देख पुष्ट दुष्ट धृष्ट हैं जले।।१।।
किरीट शीष नेत्र भाल पाँव साज पैजनी।
शरीर सौम्य गौरवर्ण क्रोध वेग बैगनी।।२।।
प्रसून लाल कंठहार,मध्य अंग मेखला।
सुदीप्त स्वर्ण कर्णफूल, रत्न से भरा गला।।३।।
पलाशरंग ओढ़नी, त्रिशूल हस्त अंबिका।
सुगंध है प्रवाहमान दिव्य देह चंडिका।।४।।
सरोज चक्र खड्ग हस्त, चाप बाण है लिए।
अराति यातुधान मार, मोक्ष धाम है दिए।।५।।
प्रघोर तीव्र बाण छोड़, दैत्य दुर्ग भेदती।
कराल काल मार बाण, शत्रु कान बेंधती।।६।।
त्रिशूल चाप शंख आदि, अस्त्र शस्त्र धारती।।
लिए गदा कटार ढाल, दुष्ट दैत्य मारती।।७।।
समूल दैत्यवंश नष्ट, ढूँढ ढूंँढ के करे,
अराति नाश हेतु मांँ अनेक रूप को धरे ।।८।।
घिरी सदा पिशाचनी, अघोर रौद्र रुप से ।
निशाचरों को मार मार, मंद मंद हैं हँसे।।९।।
दुरात्म रक्तबीज काट, रक्त पात्र में भरे।
कपालिनी समस्त रक्तपान रोष से करे।।१०।।
निशुंभ शुंभ चंड मुंड, आदि यातुधान को।
हते समस्त दैत्य खेल, खेल लेत प्राण को।।११।।
उमा सती शिवा अनेक, नाम एक रूप है।
महान भक्तवत्सला, करालिका स्वरूप है।।१२।।
मुनीन्द्र इन्द्र वा सुरारिवृंद प्रार्थना करें।
सुभक्त संत आदि की, सुसिद्ध याचना करे।१३।।
सुभक्त आर्तनाद से कृपामयी प्रसन्न हो।
मलीनता मिटे समस्त प्राण धन्य धन्य हो।।१४।।
कृपा कटाक्ष मोहना करो सदा प्रियंवदा।
प्रसिद्ध सिद्ध चंडिका रहो सहाय सर्वदा ।।१५।।
कवि मोहन श्रीवास्तव
20.03.2023
महुदा पाटन दुर्ग छत्तीसगढ़