कभी जी भर के मुझे, वे देखे ही नही ।
वे तो रहते हैं मेरे पास,मगर दिल तो कहीं ॥
कभी जी भर के मुझे.......
मै तो सजती हूं,संवरती हूं, उनके ही लिये ।
बड़ी अरमान सजाई हूं, अपने दिल में ॥
कभी जी भर के मुझे.......
मैने जुल्फों को संवारा है,बड़े ही दिल से ।
मै तो लाली भी, लगाती हूं होठों पे ॥
कभी जी भर के मुझे.......
मैं तो माथे की ये बेदी, को लगाती दिल से ।
मेरे कानों के ये झुमके,तो हिलते रहते ॥
कभी जी भर के मुझे.......
मैं तो माथे की बिन्दी, को बदलती रहती ।
मैं तो आखों मे काजल भी,लगाया करती ॥
कभी जी भर के मुझे.......
मेरी नथिया की चमक, दूर से ही दिखती है ।
दोनों भौहों की ये धारी, भी खिलती रहती ॥
कभी जी भर के मुझे......
मै तो मेरे हार गले मे, पहनती भी हूं ।
मैं तो सोलह श्रृंगार से, सजती भी हूं ॥
कभी जी भर के मुझे...........
मेरे हाथों में बजते हैं, चूड़ी खन-खन ।
मेरे पावों के तो पायल ,बजते छन-छन ॥
कभी जी भर के मुझे.......
मैं तो साड़ी भी बदलती हूं,उनके ही लिये ।
मैं तो तश्वीर बसाई है,उनकी दिल में ॥
कभी जी भर के मुझे........
मुझे लगता है कमी,कुछ तो है मेरे मे ।
पर किसी बात को,वे कभी कहते ही नहीं ॥
कभी जी भर के मुझे, वे देखे ही नही ।
वे तो रहते हैं मेरे पास,मगर दिल तो कहीं ॥
मोहन श्रीवास्तव(कवि)
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07-09-2013,saturday,2pm,(748),
pune,maharashtra