(कुकुभ छंद)
"मत मारो तुम मुझे कोख मेंं"
मेरे भी अरमान बहुत हैं, हो जाऊं मैं बलिहारी ।
मत मारो तुम मुझे कोख मेंं, मैं ही हूँ सृष्टि अधारी ।।
पापा मत निर्दयी बनो तुम,गुड़िया मैं हूँ तुम्हारी।
घर आँगन को महकायेगी, मेरी भी किलकारी ।।
जीवन दे दो तुम मुझको तो, सदा रहूंगी आभारी ।
मत मारो तुम मुझे कोख मेंं, मैं ही हूँ सृष्टि अधारी ।।
अम्मा मुझको आने दो ना, कभी न तुम्हें रूलाउंगी ।
पापा जब आयेंगे थक कर, लाके नीर पिलाऊंगी ।।
हँसकर सुख दुख मैं झेलूंगी,सुन लो बात हमारी।
मत मारो तुम मुझे कोख मेंं, मैं ही हूँ सृष्टि अधारी ।।
बर्तंन चौका झाड़ू पोछा, खाना पका खिलाऊंगी ।
साथ साथ मैं करूँ पढ़ाई, अव्वल नंबर लाऊंगी ।।
सीख सिलाई करूँ कढ़ाई, मैया मैं तेरी सारी ।
मत मारो तुम मुझे कोख मेंं, मैं ही हूँ सृष्टि अधारी ।।
भइया को राखी बांधूंगी, अपना फर्ज निभाऊंगी ।
दोनों कुल का मान बढ़ाकर, जग में नाम कमाऊंगी ।।
अतिथि पधारेंगे जब घर में, कर लूंगी सेवादारी ।
मत मारो तुम मुझे कोख मेंं, मैं ही हूँ सृष्टि अधारी ।।
मेरे भी अरमान बहुत हैं, हो जाऊं मैं बलिहारी ।
मत मारो तुम मुझे कोख मेंं, मैं ही हूँ सृष्टि अधारी ।।
2 comments:
मार्मिक.
आँखें छलछला उठीं.
बहुत हृदयस्पर्शी...
पता नहीं उन माँ बाप के कलेजे कैसे पत्थर के बन जाते हैं।
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