Tuesday, 24 June 2025

छंद:- चंचरीक (चर्चरी छन्द)“माता काली स्तुति “

छंद:- चंचरीक (चर्चरी छन्द)

“माता काली स्तुति “


कालिका कराल काल, जीभ है निकाल लाल, नैनों में अग्नि ज्वाल, असुरों को मारे l

कंठ धार मुंडमाल, हाथ में लिए मशाल , जोर जोर फाड़ गाल, अरि दल संहारे ll

योगिनी समान चाल, है त्रिपुण्ड दिव्य भाल,कटि में है व्याघ्र खाल, क्रोध से पुकारे l

पैंजन झनक ताल,हाथ में कटार ढाल, लाल लाल पुष्प माल, पापियों को जारे ll1ll


लाश यान पे सवार, जोर से करे प्रहार,सीस देह से उतार, दिखती विकराली l

दुष्ट धृष्ट मार मार, संतों को तार तार, भक्त हेतु है उदार,योगिनी कंकाली ll

देवि के हैं विखरे केश, कंत हैं सदा महेश, धारती प्रचण्ड वेश,रौद्र रूप काली l

मातु जीभ लपलपात, दाँत तिब्र कटकटात, कँठ धार दैत्य आँत,जय माता काली ll2ll


करती है रक्त पान, लेती है दैत्य प्राण, फिरती है वह मसान,तन भभूत धारी l

भूत प्रेत साथ साथ, धारी त्रिशूल हाथ,त्रिनेत्र धार माथ, शम्भु प्राण प्यारी ll

करती है अट्टहास, देख दुष्ट झुण्ड लास,मंद मंद जात हास, संत क्लेश हारी l

बार बार किलकिलात,शोणित से भीग गात,मुखड़ा है तम तमात, सीस चंद्र धारी ll3ll


कवि मोहन श्रीवास्तव

Thursday, 6 March 2025

"महान् तीर्थराज भूमि सर्वदा प्रणम्य है"

छंद:- पञ्चचामर 

"महान् तीर्थराज भूमि सर्वदा प्रणम्य है"


प्रयाग राज तीर्थराज तीर्थ में महान् है।

कलिंदपुत्रि गंग शारदे मिलें प्रमाण है।।

कपिश्वराय लेट के सभी को दर्श दे रहे।

समस्त पाप लोग के सुधांशु नीर में बहे।।

वटेषु वृक्ष आदि वृक्ष दिव्य दर्श दे रहे।

महात्म्य को ऋषी मुनी पुराण वेद हैं कहें।।

भारद्वाज की कुटी सदा ही विद्यमान है।

निषादराज राम मेल को कहे पुराण है।।

उतार भक्त केवटा विनम्र भाव ढंग से।

निषादराज भ्रात संग राम सीय गंग से।।

पुनीत पावनी धरा त्रिलोक में प्रसिद्ध है।

त्रिवेणि नीर सोम के समान दिव्य शुद्ध है।।

प्रयाग में निवास जो करें सदैव धन्य हैं।

महान् तीर्थराज भूमि सर्वदा प्रणम्य है।।

अनेक दिव्य जीव तीर्थ में निवास हैं करें।

विभिन्न रूप धार के सदैव मोद में भरें।।

पवित्र कुम्भ दीर्घ कुम्भ बार बार है लगे।

त्रिवेणि में नहान से समस्त पाप हैं भगे।।

अनेक साधु सन्त देव नाग का जमावड़ा।

मनुष्य खेचरादि आदि दीन या धनी बड़ा।।

सनातनी वहां जुटें भुला सभी विभेद को।

न जाति पात ऊंच नीच छोट दीर्घ भेद हो।।

अनेक शंभु भक्त भांति भांति के वहां जुटें।

नमः शिवाय नाम जाप बार बार हैं रटें।।

प्रघोर ठंड में अनेक वस्त्रहीन ही रहें।

भभूत गात धूनिका रमाय वेद को कहें।।

अनेक सिद्ध साधु सन्त राम की कथा कहें।

सुभक्त ध्यानमग्न ज्ञान के प्रवाह में बहें।।

पुनीत माघ मास में त्रिवेणि स्नान को करें।

अनेक कल्पवाश लोग योग मोद में भरें।।

समस्त तीर्थ में सदैव वेदमन्त्र गूंजते।

विहंग के समान लोग यत्र तत्र कूजते।।

प्रयाग के महात्म्य का न हो सके बखान है।

प्रणाम बार बार है प्रणाम बार बार है।।

प्रणाम बार बार है प्रणाम बार बार है।।

कवि मोहन श्रीवास्तव 

२६.०३.२०१४

महुदा, झीट अम्लेश्वर दुर्ग छत्तीसगढ़ 














Monday, 13 May 2024

भोजपुरी (मोर संवरिया मोर बतिया........)

सुनत नाही हो सुनत नाही
मोर संवरिया मोर बतिया सुनत नाही.......२
सुनत नाही हो............

दिल की जब बतिया उनसे करीला..२
हथवा के जोड़ दुनउ बिनती करीला........२
कवनउ जतनिया...२ चलत नाही
मोर सवरिया मोर..........

होत सबेरवां घरवा से जइतन..२
आधि-आधि रतियां....२, घर नही अउतन...२
मोरि कदरिया......२ करत नाही..........
मोर सवरिया मोर..........

अब त जनम भर उनही कर रहबइ..........२
दिल मे त पियवा क मूरत बसइबइ.........२
कवनउ गलनिया.....२, करब नाही......२ 

मोर संवरिया मोर बतिया सुनत नाही.......२
सुनत नाही हो............२

मोहन श्रीवास्तव (कवि)
www.kavyapushpanjali.blogspot.com
03-10-1999,sunday,1.30pm,
chandrapur,maharashtra.

Tuesday, 2 April 2024

हाय रे घोटालेबाज

"हाय रे घोटालेबाज"
हाय रे घोटालेबाज, दारू वारू के दलाल,
आखिर में पहुंच गया तू तो तिहाड़ में।
बड़ी बड़ी कर बात, देश से तू किया घात ,
भ्रष्टाचारी देशद्रोही अब जा तू भाड़ में।
मिटायेंगे भ्रष्टाचार, बोल बोल के गद्दार,
पर तूं भी जाके मिला, चोरों की कबाड़ में।
गड़बड़ झालावाला वाला , बन गया दारू वाला,
देश द्रोह करता था, नेता गिरी आड़ में।।

फट गया तेरा ढोल, खुल गई सारी पोल,
बच्चा बच्चा जान गया तेरे इस खेल को।
तेरे साथ मिले और, कई बड़े बड़े चोर,
तेरे आगे पीछे सब जा रहे हैं जेल को।।
तूं तो ना किसी का सगा, सब को है तूने ठगा ,
मुफतखोरी की दौड़ा रहा था तू रेल को।
सब लोग जान गए, तुझे पहचान गए,
तिल तिल तरसेगा अब तू तो बेल को ।।
मोहन श्रीवास्तव
02.04.2024, मंगलवार
महुदा झीट पाटन दुर्ग



Monday, 1 April 2024

काला बाल


बुढ़ापा को करो बाय, जब है हेयर डाई,
फटाफट बूढ़े से जवान बन जाइये।
सत्तर को साठ कर, साठ को पचास कर,
आयु दस बीस साल तुरंत घटाइये।।
बालों को काला करके, मारो बुढ़ापे को गोली
आईने के सामने खड़े हो इतराइये ।
लहरा के काले बाल, हो जाइये खुशहाल,
मुखड़े के अपने प्रभाव को बढ़ाइये ।।

जब पके मेरे बाल, देवी जी का सूजा गाल,
बोली जाके आज बाल काले करवाइए।।
करूंगी न बातचीत , भूल जाना प्रीत वीत,
और कोई काम धाम मुझे ना बताइए ।
मेरे साथ घूमने को जाना है जो आपको तो
जाइए जी जाइए बहाने न बनाइए।
बोली मैं तो जानती हूं आप की सच्चाई सब,
बूढ़े हो रहे हो ये न जग को जनाइए।।

देवी जी की बात मांन, गया नाई की दुकान,
बोला  मुझे कर दो जवान लीप पोत कर l।
मुस्काते हुए मुझे नाई बोला बैठ जाओ,
कुर्सी पे बैठा मैं भी दांत को निपोरकर।।
दांत जो निपोरा मैंने वो भी मेरा नकली था,
आ गया बाहर साला मुंह से निकलकर।
नाई हैरान हुआ मैं भी परेशान हुआ,
बात सुलटाया मैने कैसे भी संभलकर।।

कवि मोहन श्रीवास्तव
महुदा झीट पाटन
01.04.2024

Sunday, 24 March 2024

होली खेलैं बनवारी बिरज में २

होली खेलैं बनवारी बिरज में २
उठि के बिहनियां धूम मचावें
पू पू करके पूप बजावें
लेके कनक पिचकारी
बिरज में होली खेलैं बनवारी।।१।।

तन पीताम्बर कटि में करधन
पग में घुंघरू बजत छनन छन
नंद बबा के दुआरी
बिरज में होली खेलैं बनवारी।।२।।

भरि पिचकारी ग्वारन आए
कान्हा को सब रंग लगाए
करते हुड़दंग वो भारी
बिरज में होली खेलैं बनवारी।।३।।

ढोलक झांझ मृदंगा बाजे
घूंघट ओढ़ि गुआरिन लाजे
देवत गीत में गारी
बिरज में होली खेलैं बनवारी।।४।।

रंग गुलाल अबीर उड़ाएं
इक दूजे को रंग लगाएं
रंग गये आज मुरारी
बिरज में होली खेलैं बनवारी।।५।।

होली खेलैं बनवारी बिरज में २

शुभ होली (कुंडलियां)

होली की शुभकामना, आप सभी को मीत।
वैर भाव सब दूर कर, गले लगो धर प्रीत।।
गले लगो धर प्रीत, अबीर गुलाल लगाओ।
हिंसा ईर्ष्या द्वेष, सभी मिल दूर भगाओ।।
खाओ गुझिया भांग, माथ पे चन्दन रोली।
मोहन कहता आज, आप सब को शुभ होली।।

Monday, 18 March 2024

"राधा कृष्ण की होली" दोहे

"राधा कृष्ण की होली"


राधा जी मकरंद हैं, लूटें कृष्ण पराग।
लिपट लिपट कर खेलते, यमुना तीरे फाग।।


श्याम रंग में डूबते, राधा के सब अंग।
गोरी राधा से हुए, मोहन मस्त मलंग।।


बरसाने टोली चली, खेलन होली आज।
ग्वालबाल संग श्याम लखि, राधा आवे लाज।।


मोहन पिचकारी लिए, जाते राधा पास।
भागी जाएं राधिका, मन में है उल्लास।।


लिन्ह पकड़ हैं राधिका, श्याम कसे भुजबंध।
लट कपोल रगड़ें किसन, करें बहुत हुड़दंग।।


कटि बांधे पीताम्बरी, कसे वेणु निज श्याम।
मोर पंख है सीस पर , लगते सुख के धाम।।


श्याम प्रीत के रंग में, राधा जाए डूब।
इक दूजे पे रंग से, होली खेलें खूब।।


पिचकारी की मार से, राधा हुईं बेहाल।
पाकर मोहन प्रेम को, हो गइ मालामाल।।


भीगी चूनर राधिका, पीताम्बर घनश्याम।
रंगों की बौछार से, यमुना हुई ललाम।।


जमुना जल में धो रहे, दोनों अपना रंग।
मोहन राधा रंग से, जमुन हुई सतरंग।।


होली के सब रंग को , धोएं राधा श्याम।
मोद युक्त यमुना हुई, छवि निरखत अभिराम।।


होली की शुभकामना, आप सभी को मीत।
सतरंगी जीवन रहे, बढ़े सभी में प्रीत।।
कवि मोहन श्रीवास्तव
12.03.2023
Mahuda,jheet,patan durg Chhattisgarh
1367

Wednesday, 13 March 2024

वो जाके बसे परदेश

अपने जीवन कुछ शेष।

वो जाके बसे परदेश।।


जनमें बेटा-बेटी थे  जब,

हर्षित बापू माई।

चाचा चाची नाना नानी,

दादा दादी ताई।।

थी खुशियां बडी विशेष।

वो जाके बसे परदेश।।१।।

अपने जीवन कुछ शेष।


हमने जैसे तैसे जीकर,

उनको खूब पढ़ाया।

उनकी सुख सुविधा के खातिर,

अपना मान घटाया।।

उन्हें ना हो दुःख लव लेश।

वो जाके बसे परदेश।।२।।

अपने जीवन कुछ शेष।


पढ़ लिख कर जब योग्य हुए तो,

अपना व्याह रचाए।

दूर देश में जाकर के वे,

अपना गेह बसाए।।

लें मोबाइल सन्देश।

वो जाके बसे परदेश।।३।।

अपने जीवन कुछ शेष।


क्या क्या सोचे थे हम दोनों,

देखे थे सुख सपने।

अपना दुःख किसको बतलाएं,

छोड़ गए जब अपने।।

दिल में दिन रात कलेश।

वो जाके बसे परदेश।।४।।

अपने जीवन कुछ शेष।


सपनों के इस सूने घर में,

हम हैं आज अकेले।

यहीं लगा करते थे जब तब,

सब खुशियों के मेले।।

अब यादों के अवशेष।

वो जाके बसे परदेश।।५।।

अपने जीवन कुछ शेष।

कवि मोहन श्रीवास्तव
महुदा, झीट, अम्लेश्वर,दुर्ग,छत्तीसगढ़


दिनांक १३.०३.२०२४






Friday, 1 March 2024

छंद - बसन्त तिलका "शिव स्तुति" भोले बजाय डमरू

छंद - बसन्त तिलका
शिव स्तुति


भोले बजाय डमरू, गण साथ में हैं।
गंगा ललाट पर है, जग नाथ में है।।
लेके त्रिशूल चलते, हरि नाम गाते।
बाघंबरी पहनके, शिव ॐ ध्याते।।१।।

हैं साथ वाम गिरिजा, शिव की पियारी।
नन्दी सजे बसह पे, करते सवारी।।
कैलाश लोक हर का, गृह है निराला।
माला भुजंग गर में, मुख पे उजाला।।२।।

राकेश सीस शिव के, अलि कान बाला।
पीते सुधा समझ के, विष रूप प्याला।।
हैं कोटि काम लजते, शिव रूप से है।
भोले सदा सरल हैं , सुर भूप भी हैं।।३।।

माथा त्रिपुण्ड सजता, तन भस्म भारी।
मुस्कान मंद मुख पे, बहु व्याल धारी।।
ब्रह्माण्ड के शिव पिता, सब लोक भर्ता।
पालें विनाश करते, सुख सिद्धि कर्ता।।४।।
लाला ललाल ललला, ललला ललाला
विघ्नेश कार्तिक सदा, सुत संग में हैं।
भोले जपें हरि सदा, अहि अंग में हैं।।
बाबा करूं अरज मैं , बिगड़ी बनाओ।
दो ज्ञान बुद्धि बल को, धन को बढ़ाओ।।

कवि मोहन श्रीवास्तव
दिनांक:- ०१.०३.२०२४, शुक्रवार,
गुलमोहर रेसीडेंसी, महावीर नगर, रायपुर छत्तीसगढ़





Saturday, 24 February 2024

दोहा

राम काज में जो करें, कालनेमि बन रार।
उन सबकी खल कामना,क्षण भर में हो जार।।
दुष्ट सदा हर युग रहें, करें अशुभ व्यवहार।
पर शुभ कारज हो सफल, पड़े दुष्ट को मार।।
धर्म पाप के युद्ध में, सदा यही है रीत।
पाप हारता आप है, मिले धर्म को जीत।।
संतों के सानिध्य में, बढ़ें शांति की ओर।
पर दुष्टों का साथ तो,दुख देता घनघोर।।
धर्म कर्म के काम में, दुष्ट करें विध्वंस।
धर्म सदा है जीतता, मिटे दुष्ट के वंश।।
२०.०१.२०२४

श्री कृष्ण स्तुति " हे मुरली मनोहर श्याम "सुधार हो गया

हे मुरली मनोहर श्याम।


हे मुरली मनोहर श्याम।
प्रभु आओ, प्रभु आओ…

मेरे बिगड़े बनाने काम।। 
प्रभु आओ, प्रभु आओ…. 

मेरी नैया डोल रही है, बीच भँवर में आओ।
एक भरोसा मुझको तुमपर, आकर लाज बचाओ।।
मुझे जग से नहीं है काम…. 
प्रभु आओ, प्रभु आओ…. 
हे मुरली मनोहर श्याम
मेरे बिगड़े बनाने काम… 
प्रभु आओ, प्रभु आओ…

मुझको कोई पंथ ना सूझे, तेरा एक सहारा।
ले चल मुझको दूर यहाँ से, अब नहीं यहाँ गुजारा।।
मैं लूँगा तुम्हारा नाम…. 
प्रभु आओ, प्रभु आओ…
हे मुरली मनोहर श्याम।
प्रभु आओ प्रभु आओ…. 
मेरे बिगड़े बनाने काम… 
प्रभु आओ, प्रभु आओ…


सब अपराध क्षमा करके , अपना लो गोकुल वाले।
तेरी लीला बहुत सुना हूँ, तुम हो बड़े निराले।।
मुझे ले जाने निज धाम… 
प्रभु आओ, प्रभु आओ…
हे मुरली मनोहर श्याम।
प्रभु आओ प्रभु आओ…. 
मेरे बिगड़े बनाने काम… 
प्रभु आओ, प्रभु आओ…


मेरी बुद्धि थोड़ी सी है, हूँ जन्मों का पापी।
पातक के उद्धारक तुम हो, जग में परम प्रतापी।।
मैं दुनिया में बदनाम….. 
प्रभु आओ, प्रभु आओ…
हे मुरली मनोहर श्याम।
प्रभु आओ प्रभु आओ…. 
मेरे बिगड़े बनाने काम… 
प्रभु आओ, प्रभु आओ…

कवि मोहन श्रीवास्तव (सुधार हो गया है)
15/04/91

है ठंड गुलाबी,आखें शराबी

है ठंड गुलाबी,आखें शराबी,
मै हूं,तेरा दिवाना ।
जुल्फें हैं सुहानी, तुम मस्तानी,
पागल सा बना,है जमाना ॥
है ठंड गुलाबी..........

तुम्हें करें प्यार,दिल बेकरार,
बाहों मे मे, आ जावो ।
तुम तो हो जाम, रंगीन शाम,
आखों मे नशा,छा जावो ॥
है ठंड गुलाबी..........

तुम जाड़े की धूप,परियों सा रूप,
पूनम की रात,बन जाती ।
नागिन सी चाल, तुम हो सवाल,
फूलों की तरह,हो मुस्काती ॥
है ठंड गुलाबी..........

तुम्हें पाने की आश, तुम हो तलाश,
तुम जिसे मिलो तो,नसीब खुल जाये ।
तुम सागर की लहर, हो सपनों का शहर,
तुम्हे देखे जो वो, सब भूल जाये ॥
है ठंड गुलाबी..........

अब और ना सतावो,मुझे इतना ना तड़पावो,
मेरे सपनों की रानी आवो ।
दिल की धड़कन बढ़ाती,क्युं तुम नही आती,
मेरी सच्ची कहानी आवो ॥

है ठंड गुलाबी,आखें शराबी,
मै हूं तेरा दिवाना ।
जुल्फें हैं सुहानी, तुम मस्तानी,
पागल सा बना है जमाना ॥
है ठंड गुलाबी..........

मोहन श्रीवास्तव (कवि)
www.kavyapushpanjali.blogspot.com
15-11-1999,monday,11.50am,
chandrapur,maharaashtra.



Friday, 23 February 2024

कनकधारा स्तोत्र हिन्दी भावानुवाद"





कनकधारा स्तोत्र 


धन प्राप्ति के लिए हरसंभव श्रेष्ठ उपाय करना चाहते हैं। धन प्राप्ति और धन संचय के लिए पुराणों में वर्णित कनकधारा यंत्र एवं स्तोत्र चमत्कारिक रूप से लाभ प्रदान करते हैं। इस यंत्र की विशेषता भी यही है कि यह किसी भी प्रकार की विशेष माला, जाप, पूजन, विधि-विधान की मांग नहीं करता बल्कि सिर्फ दिन में एक बार इसको पढ़ना पर्याप्त है। 


कनकधारा स्तोत्रम श्री बल्लभाचार्य द्वारा लिखा गया माँ लक्ष्मी जी का आशीर्वाद प्राप्त करने का एक शक्तिशाली स्तोत्र है। कनकधारा स्तोत्र का नियमित पाठ करने से तथा कनकधारा यन्त्र को धारण करने से धन सम्बंधित परेशानियां शीघ्र ही दुर हो जाती हैं। कनकधारा स्तोत्र धन प्राप्त करने के लिए एक बहुत शक्तिशाली स्तोत्र है।


“कनकधारा स्तोत्र हिन्दी भावानुवाद"

छन्द - “बसंत तिलका”

लाला ललाल ललला, ललला ललाला 


जैसे प्रवास करती, मदमस्त आली।

फूले तमाल तरु की, लचकी डँगाली।।

वैसे सदैव कमला , हरि वाम राजे।

श्री अंग अंग दमके, शुचि रूप साजे।। १।। 


रोमांच श्रीहरि रमे, रमणीय माया।

ऐश्वर्य आदि सब है, तुममे समाया।

संपूर्ण मंगलमयी, धनधान्य देवी। 

लक्ष्मी महाभगवती, हरिधाम सेवी

।।२।।

माता दयालु महिमा, सब लोग गाते।

संतुष्टि लाभ मिलता,यश कीर्ति पाते।।

देवी दयालु महती, ममता लुटाओ।

ले लो मुझे शरण में, बिगड़ी बनाओ।।३।।


आली सरोजदल पे, मड़राय जैसे ।

देखे स्वरूप छबि माँ, इतराय वैसे ।।

लज्जा भरे नयन से, हरि को निहारे।

लौटे सप्रेम पुनि माँ, छवि देख न्यारे।।४।। 


होके कृपालु मुझको, भव से उबारो।

हे सिन्धु पुत्रि चपला, दुख ताप टारो।।

ध्याऊँ समेत हरि के , दिन रात पद्मा ।

झोली सुभक्त भर दो, धन धान्य से माँ।। ५।। 


माँ इंद्र तुल्य पदवी, धन धान्य देती।

होके समर्थ सबसे, जग नाव खेती ।।

आनंद भोग वह जो, हरि को सुहाते।

देती मुरारि हरि को, सुख सिद्ध माते ।।६।। 


नीलाब्ज तुल्य जननी, हरि की ललामा।

स्वामी कृपालु हरि की,प्रिय आप भामा ।।

आधे खुले नयन से, निज दृष्टि डालो।

लक्ष्मी दयालु महती, सुत को सँभालो।। ७।। 


भार्या अनंतजित हो, प्रिय शेषशायी।

ऐश्वर्य धान्य धन दो, बनके सहाई।।

प्रेमातिरेक वश हो, पलकें झुकी है।

नैना सुमध्य पुतली, ठिठकी रुकी है।।८।। 


माँ किन्तु एकटक ही, हरि को निहारें।

आनंद संग चपला, सुख से विहारें।।

वो देख पास हरि को, नयना झुकाती।

है प्रीत की विवशता, प्रिय से लजाती।। ९।।


श्रीविष्णु देवमणि को, निज वक्ष धारें।

हारावली हृदय को, हरि के सिंगारे।।

संचार प्रीत प्रिय के, हिय में कराती।

आनंद प्रेम हरि पे, विपुला लुटाती।।१०।। 


राजीव कुंजदल की, बनके निवासी।

मालाकटाक्ष कमला, हरती उदासी।।

कल्याण देवि कर दो, विनती हमारी।

बाधा समस्त हर लो, हरि प्राण प्यारी।।११।। 


जैसे घने जलद में, चमके शया है।

वैसे कृपालु हरि की, महती दया है ।।

गोविंद वक्ष पर है, मधुमेघमाला।

फैला सुदिव्य जिससे, मणि सा उजाला ।।१२।। 


आनंद नेह भरती, भृगु वंश में माँ।

माता समस्त भुवि की, हरि की ललामा ।।

कल्याण आप कर दो, निज भक्त माता।

हे पूज्य मूर्ति वरदा, महनीय दाता ।१३।।


आधे खुले नयन से, करना कृपा माँ ।

हे सिन्धुपुत्रि मुझपे, करना दया माँ।।

हो मंद मंद हँसती, चपला ललामा।

पाते प्रभाव तुमसे, हिय विष्णु कामा।।१४।। 


पाया अनंग हरि से, हिय मान भारी।

लक्ष्मी महान जननी, सरला उदारी।।

डालो सुदृष्टि मइया , भव से उबारो ।

माता सदैव विनती, दुःख क्लेश टारो।। १५।। 


नारायणी हरिप्रिया, घनरूप नैना ।

दाती दयालु सुन लो, तुम पुत्र बैना।।

ज्यों ताप नाश करती, बहती हवायें।

त्यों क्लेश आदि हर लो, विनती लगायें।।१६।। 


हो दीन मैं पपिहरा, तुमको पुकारा।

वर्षा करो सदय माँ, धनधान्यधारा।।

माता दयालु रहना, तलवार धारी।

टालो समस्त विपदा, हरि प्राण प्यारी।। १७।। 


ज्ञानी मनुष्य जननी, प्रिय पात्र होते।

वे स्वर्ग पा सरलता, निज पाप धोते।।

सौभाग्य वैभव सभी, धन धान्य पाते।

लक्ष्मीकृपा लहर से, सुख शांति छाते ।।१८।। 


जैसे सरोज खिलता, नवगर्भ माता।

आता प्रकाश उसमें , शुचिदर्भ दाता।।

वैसी सुदृष्टि कर दो, जय विष्णु प्यारी ।

संपूर्ण सिद्धि वर दो, विनती हमारी। ।१९।।


संसार के सृजन को, तुम ही रचाती ।

माँ ब्रम्ह शक्ति बनके , सबको बनाती।।

माँ विष्णु शक्ति बनके, सबको खिलाती।।

माँ पाल पोष जग को, तुम ही जिलाती।।२०।। 


हो रुद्र शक्ति बनके, भव में विराजे।

देवी तुम्ही प्रलय में, सब काम साजे।।

माँ एकमात्र हरि की, तरुणी प्रिया हो।

लक्ष्मी प्रणाम् महती, करती क्रिया हो।।२१।।



माता प्रणाम् तुमको, शुभ लाभ देना।

दे वेद ज्ञान हमको, भव नाव खेना ।।

है रूप सिन्धु रति सी, रमणीय माता।

हे माँ प्रणाम् कर मैं, यशगीत गाता।।२२।। 


लक्ष्मी सरोज वन की, तुम हो निवासी ।

आधारभूत जगती, हरि श्री विलासी।।

गोविंद शक्ति तुम ही, रमणीय माया।

देवी प्रणाम् करने, हरिधाम आया।।२३।।


अम्भोज देह कमला, तुमको नमामी।

हे क्षीरसिन्धु रमणी, तुमको नमामी। ।

राकेश सोम भगिनी, तुमको नमामी।

नारायणी हरिप्रिया, तुमको नमामी ।।२४।। 


अम्भोज तुल्य नयना, हरि प्राणप्यारी ।

जो वंदना चरण की, करते तुम्हारी।।

देती अपार उनको, धन धान्य माता।

साम्राज्य हर्ष सुखदा, श्रुति ज्ञानदाता ।।२५।। 


सम्पूर्ण क्लेश हर के, व्यवधान काटे।

देवी कृपा कर सदा, निज नेह बाँटे।।

दाती सदा चरण की, मृत्तिका बनाना।

माँ स्नेह आप मुझपे, नित ही लुटाना।।२६।। 


जो भी उपास रखते, चपला तुम्हारी।

पाते कृपा अटल वो, प्रभु प्राणप्यारी।।

हो कामना सफल जो, मन में विचारे।

संपत्ति धान्य बरसे, दुख क्लेश टारे।।२७।। 


ऐसी रमा भगवती, तुमको रिझाऊँ।

वाणी शरीर मन से, गुणगान गाऊँ।।

गोविन्द प्राण प्रिय माँ, विनती हमारी ।

लक्ष्मी दयालु सुत पे, रहना उदारी।।२८।।


देवी सरोज वन की, रमणीय वासी।

नीलाब्ज हस्त कमला, हर लो उदासी ।।

दैदीप्यमान छवि है, शुभ कंठ माला।

शोभायमान तन में, पट हैं निराला।।२९।। 


झाँकी मनोरम लगे, सबसे तुम्हारी।

ऐश्वर्य आदि वर दे, कमला उदारी।।

देवी प्रसन्न रहना, विनती हमारी।

गाऊँ सदैव गुन मैं,मन से तुम्हारी।।३०।। 


ले दिव्य स्वर्ण कलशा, भर गंगधारा।

देवी उपासक सभी, अभिषेक द्वारा।।

श्री अंग स्नान करके, तुमको मनाते।

पूजें रमा चरण वो, सुख शांति पाते।। ३१।। 


संपूर्णलोक मुखिया, हरि प्राण प्यारी।

हे सिन्धुराज बिटिया, जग की अधारी।।

मैं हूँ प्रणाम् करता, नित देवि माया।

लेना मुझे शरण में, बन छत्रछाया ।।३२।।



अम्बोज नेत्र हरि की, कमनीय पद्मा ।

लक्ष्मी तुषारवदना, चपला ललामा।।

मैं दीन हीन कपटी, बलहीन माता। 

पूजा विधान विधि से, करना न आता।।३३।। 


देवी कृपा करुण हो, कर दो उदारी।

सारे विपत्ति हर लो, कमला हमारी।।

माता दयालु महती, दृग ना हटाना।

लक्ष्मी सदैव करुणा, मुझपे लुटाना।।३४।। 


जो नित्य ही स्तुति करे, त्रय वेद रूपा।

लक्ष्मी कृपा प्रबल से, गिरते न कूपा।।

ऐश्वर्य धान्य धन पा, गुणवान होते।

होके महासरल वो, सुख बीज बोते।।३५।। 


विद्वान लोग यश को, सुन पास आते।

ईच्छा धनाढ्य मन की, पहचान जाते।।

लक्ष्मी कृपा बरस के, धन धान्य लाते।

सौभाग्य प्राप्त कर वो, हरि लोक पाते।।३६।। 


कवि मोहन श्रीवास्तव

27.11.2023

खुश्बू विहार कालोनी अमलेश्वर, पहांदा,दुर्ग, छत्तीसगढ़ 


॥ इस प्रकार श्रीमत् शंकराचार्य रचित कनकधारा स्तोत्र सम्पूर्ण हुआ




छंद:- "छप्पय " श्री राम स्तुति (हुआ राम मय विश्व, और केसरिया तनमन)

छन्द - छप्पय
छप्पय एक ‘संयुक्त मात्रिक छन्द’ है। इस छंद का निर्माण ‘मात्रिक छन्द’ के ‘रोला छन्द’ और ‘उल्लाला छन्द’ के योग से होता है। छप्पय छन्द में कुल 6 चरण होते है।
इसमें प्रथम 4 चरण ‘रोला छन्द’ के होते है, जबकि अंतिम 2 चरण ‘उल्लाला छन्द’ के होते हैं। प्रथम 4 चरणों में कुल 24 मात्राएँ होती है, जबकि अंतिम 2 चरणों में 26-26 अथवा 28-28 मात्राएँ होती है।

उदाहरण में दिये गये उल्लाला छन्द में उल्लाला के तीसरे प्रकार का प्रयोग हुआ है अर्थात दो लघु या एक गुरु पहले रखें उसके बाद 2+13-13मात्राऐं रखें,
छप्पय छन्द एक बहुत ही सुंदर छन्द है जिसमें भक्तिकालीन कवियों ने ढेरों पद लिखे हैं।
रोला के अंत में चार लघु रखने से बहुत मनोरम लगता है।
"छप्पय" उल्लाला का दूसरा प्रकार।

हुआ राम मय विश्व, और केसरिया तनमन।
झंकृत ढोल मृदंग,और नूपुर ध्वनि छन छन।।
भगवा ध्वज लहराय, रहा छप्पर छत ऊपर।
दर्शन करने देव, स्वर्ग से आए भू पर।।
राम भक्त टोली चली ।गांव गांव नगरी गली ।।
गाते प्रभु गुण गीत हैं। धर्म कर्म से प्रीत है ।।१।।

कितनों के बलिदान बाद, आया यह शुभ दिन।
पांच सदी तक नैन, प्रतीक्षा रत थे दिन गिन।।
आज बना संयोग, पधारे मंदिर रघुवर।
घर घर वंदनवार, द्वार पर कलशा सुंदर।।
हुए वीर बलिदान हैं।यह उनका सम्मान है।।
बात गई अब बीत है।हुई सत्य की जीत है।।२।।

जीव सभी धनभाग, अवध की ओर चले हैं।
दीवाली की भांति, चहूं दिशा दीप जले हैं।।
राम राज्य की भोर, हुई भारत के आंगन।
भारतवासी लोग , मुदित आह्लादित मन मन।।
दुष्ट करें व्यवधान हैं । जिन्हें नहीं कुछ ज्ञान है।
पर सबके हिय राम हैं।सजी अयोध्या धाम है।।३।।

कवि मोहन श्रीवास्तव
१९.०१.२०२४, शुक्रवार,८ बजे सांय
खुश्बू विहार कालोनी अमलेश्वर दुर्ग छत्तीसगढ़






छंद:- बरवै" (पुनः विराजे रघुवर, अपने धाम)

बरवै एक अर्ध सम मात्रिक छंद है। इसके विषम चरण (प्रथम, तृतीय) में बारह-बारह तथा सम चरण ( द्वितीय, चतुर्थ) में सात- सात मात्राएँ रखने का विधान है। सम चरणों के अन्त में जगण (जभान = लघु गुरु लघु) होने से बरवै की मिठास बढ़ जाती है। बरवै को अवधी का मूल छंद माना जाता है किंतु यह बाध्यकारी नहीं है।6 Jan 2023

गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित बरवै रामायण से लिया गया छंद:

चम्पक हरवा अंग मिलि,अधिक सुहाय।

जानि परै सिय हियरे ,जब कुंभिलाय।।

प्रेम प्रीति को बिरवा ,चले लगाय।

सियाहि की सुधि लीजो ,सुखी न जाय।।

........=


श्री राम स्तुति 

"बरवै"
पुन: विराजे रघुवर, अपने धाम।
मूरत सुंदर लाजे, कोटिन्ह काम।।१।।

जनक दुलारी प्यारी, रघुवर साथ।
खड़े लखन धर धनु शर ,लेके हाथ।।२।।

गदा हाथ में धारे , श्री हनुमान।
राम चरण का करते, हैं प्रभु ध्यान।।३।।

बाल रूप सांवल है, सियपति गात।
लगें मनोहर राघव, दिन या रात।।४।।

पीताम्बर धारी हैं, श्री भगवान।
भक्त मंडली करते, हैं गुणगान।।५।।

कौशल्या सुत दशरथ, नंदन राम।
कृपा सिंधु हितकारी, सुख के धाम।।६।।

सकल सृष्टि अधिनायक, हो महराज।
सदा बचाते भक्तों, की हो लाज।।७।।

दुष्टों को लगते हो, जैसे काल।
संत हेतु रहते हो, बनकर ढाल।।८।।

कवि मोहन श्रीवास्तव
२१.०१.२०२४, रविवार, सायं ७ बजे
खुश्बू विहार कालोनी अमलेश्वर दुर्ग छत्तीसगढ़ 

"अष्टपदी" श्रीराम स्तुति (दशरथ लाल हरे)

"दशरथ लाल हरे"
अवध लगत अति सुन्दर, जहॅं रघुवर हैं।
राम लला सुख धाम, दशरथ लाल हरे।।१।।

मूरत अद्भुत स्यामल, पग पायल है।
सरयू चरण पखार, दशरथ लाल हरे।।२।।

रघुवर भवन अलौकिक, सब दैविक है।
अलग अलग श्रंगार, दशरथ लाल हरे।।३।।

अनुपम बालक रूपम, छबि उत्तम है।
मधुर मधुर मुस्कान, दशरथ लाल हरे।।४।।

रतन जड़ित पीताम्बर,कोमल उर हे।
जय जय अवध भुआल, दशरथ लाल हरे।।५।।

सीस मुकुट कर कंगन, तन चन्दन हे।
कटि करधन मणि हार, दशरथ लाल हरे।।६।।

टुकुर-टुकुर सब देखत, निज नयनन हे।
भगतन लखि मुसुकात, दशरथ लाल हरे।।७।।

अखिल जगत जन नायक, सुख दायक हे।
जयति जयति जय राम, दशरथ लाल हरे।।८।।

कवि मोहन श्रीवास्तव
२५.०१.२०२४, सांय काल ५ बजे, अमलेश्वर दुर्ग छत्तीसगढ़