मै एक पंक्षी,
कितना भाग्यशाली,
मै गरीब हू, पर बदनसीब हू,
मै चाहे जहा जाऊ, अच्छे-अच्छे स्थान पर,
कितने देशों मे घूमूं ,फ़िरूं ,चाहे जाऊं शमशान पर,
मेरी अभिलाषा , इक आशा ,
कि मै बहुत दूर चन्द्र पर जाऊं,
मै गाऊं अपनी चंचल बोली मे,
गाते-गाते जाऊं डोली मे !!
फ़िर भी मै मौन धारण किये हूं,
सोचता ,फ़िरता, किये कल्पनांए,
ये आशाएं ,अभिलाषाएं ,
दूर गगन मे पूर्ण होंगी कि नही,
मेरी कल्पनाएं हैं अपार,
इसमें लगेंगे वर्षों पार,
अचानक, सहसा एक झटका ,
लगा मेरे तन को,
क्या हो गया मेरे मन को,
पिछे मुड़ा ,देखा ,दूर से,
कोई शिकारी मारा तीर से,
हाय मै कितना बदनसीब हूं,
गरीब हूं , निर्धन व मुर्ख हूं,
रेत की दीवार मे लीन हूं,
हाय मै कितना बदनसीब हूं,
हाय मै कितना बदनसीब हूं !!
मोहन श्रीवास्तव
रचनाका दिनांक-३०/३/१९९१
समय - ३बजकर २० मिनट
स्थान-एन.टी.पी.सी दादरी,गाजियाबाद
(प्रिय मित्रों,यह रचना मेरे जीवन की सबसे पहली रचना थी )
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