कान्हा -कान्हा पुकारुं गलियों में...
मैं बावरी हो गई उसकी
कोई सुझे नहि काम
रातो-दिन मै व्याकुल होकर
कहती आ मेरे श्याम
कान्हा-कान्हा....
तन मे तु पिताम्बर डारे
मुख मे दधी लिपटाए
उसकी अनोखी लीला को
कोई समझ ना पाए
कान्हा-कान्हा...
वो मेरा सुन्दर सजीला दर्पण
मै हो गई उसकी आज!
मैने सब कुछ कर दिया अर्पण
वो अब मेरा लाज!!
कान्हा-कान्हा.....
उसका रूप अनोखा है री
नयनो के रंग लाल!
जो उसको मन से भज ले रे
हो जाए वो माला माल!!
कान्हा-कान्हा...
मेरा कृष्ण कहा खोया है
मै ढुढ़ू उसे सब द्वार!
आज क्युं मुझसे रूठ गया वो
मै समझ सकी नहि सार!!
कान्हा-कान्हा...
उसकी मंद-मंद मुस्काने
कैसे वो शर्माए!
पर वो मेरे दिल मे रहता
चाहे जहां चला वो जाए!!
कान्हा-कान्हा....
अब ना मेरे आंसू बहावो
दर्शन दे दो मेरे श्याम!
मुझ पापिन-दुखियारी को
अपने शरण मे ले लो श्याम!!
कान्हा-कान्हा पुकारुं गलियों मे....
मोहन श्रीवास्तव (कवि)
www.kavyapushpanjali.blogspot.com
दिनांक-१६/५/१९९१,प्रात:०७.०६बजे,
एन.टी.पी.सी. दादरी ,गाजियाबाद (उ.प्र.)
5 comments:
बहुत सुन्दर! जय राधे कृष्ण!
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राधे-राधे ....कृष्णमय रचना
बृजेश सिंह जी
आपका सादर आभार
अन्जु चौधरी जी,
आपका दिल से आभार
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