बजट सत्र है, आने वाला,
जिसमें सब मनमानी, मंहगाई बढ़ायेंगे ।
बे-कसुर भोली, जनता पर,
अपनी नाकामी का, बोझ चढ़ायेंगे ॥
चाहे कोई कितना, चीखे-चिल्लाए,
पर इनके कानों पर, जूं नही रेंगेगी ।
मंहगाई से घुट-घुट कर, मर जाये कोई,
पर इनकी, आत्मा नही रोएगी ॥
शरबती गिलास में, मिठा दूध,
फिर उसमें मंहगाई का, जहर मिलाते हैं ।
लम्बे-चौड़े, भाषण कर वे,
कुटिल मुस्कानों से, हमें पिलाते हैं ॥
खुद अपने खर्चों में, कटौती नही करते,
उसका भार भी, हमपे ही चढ़ाते हैं ।
डीजल-पेट्रोल, छिड़क कर के,
फिर रसोई गैस से, हमें जलाते हैं ॥
रोज-रोज किमतों, में बृद्धि कर,
जींदा ही हमें, मार रहे हैं ।
हमें मंहगाई की, भेंट चढ़ा कर,
हमारे खुन से वे, नहा रहे हैं ॥
मोहन श्रीवास्तव (कवि)
www.kavyapushpanjali.blogspot.com
15-02-2000,tuesday,11am,
chandrapur,maharashtra.
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