पति बिना अधुरी है पत्नी,
जो दिन - रात बिरह मे है जलती ।
संसार के सब रिश्ते -नाते,
जैसे सुरज की ताप उसे लगती ॥
पिया बिना वो रहती ऐसे,
जैसे पानी बिना नदी कोई ।
नींद न आती है उसको,
हर - पल प्रीतम मे ही खोई ॥
मिलने की आश लगाए वो,
हर पल- दिन व घड़ी गिनती ।
दिन तो कैसे भी कट जाता,
पर रात कठिनता से कटती ॥
सजना-सवंरना लगे नीक ना,
सूख गए होठों की लाली ।
बाग के पौधे मुरझा हैं गए,
जैसे नही हो इनका अपना माली ॥
पर जब घड़ी मिलन का आता है,
तो दो मुर्झाए फूल खिल जाते हैं ।
अब तक जो सहे जुदाई के गम,
वे याद नही रह पाते हैं ॥
पति बिना अधुरी है पत्नी,
जो दिन -रात बिरह मे है जलती ।
संसार के सब रिश्ते-नाते,
जैसे सुरज की ताप उसे लगती ॥
मोहन श्रीवास्तव (कवि)
www.kavyapushpanjali.blogspot.com
रचनांकन दिनांक- २१-१-२०१३
सोमवार, प्रातः ४.१५ बजे
पुणे (महारास्ट्र)
No comments:
Post a Comment