ये सब कलियुग का ही कमाल है, कि,
चारों ओर तामसी प्रवृत्ति, का ही बोल-बाला है ।
बाहर से तो, मीठे बोल,
पर अन्दर तो, काला ही काला है ॥
मद्य-मांश का, सेवन कर,
लोग दुराचरण कर रहे हैं ।
पाप कर्म को, करते-करते,
ये अपना, भरण-पोषण कर रह्र हैं ॥
चोरों व बेइमानों का,
अब भरपूर, साम्राज्य हो रहा है ।
सीधे-सादे, ईंषानों काम
दिल तो, आज रो रहा है ॥
हर समय अनर्थ, में डुबे हुए ये,
बस परमार्थ की, बातें ही किया करते ।
भ्रष्ट आचरण को करके,
और भक्ति का ढोंग, किया करते ॥
अनेकानेक पापों, को करके,
ये जीवन में बहुत, दुःखों को झेल रहे हैं ।
पर इन सबसे ये, आखें मूदकर,
दिन-रात पाप, से खेल रहे हैं ॥
इन सब के पापों, से दबी ये धरती,
आज अंदर ही अंदर रो रही है ।
अपने बहते, आसुओं से,
इनके पापों को, ढो रही है ॥
ये सब कलियुग का ही कमाल है, कि,
चारों ओर तामसी प्रवृत्ति, का ही बोल-बाला है ।
बाहर से तो, मीठे बोल,
पर अन्दर तो, काला ही काला है ॥
मोहन श्रीवास्तव (कवि)
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