Monday 19 February 2024

मर रही है आत्मा लोगों की

मर रही है आत्मा, लोगों की,
उन्हें सही गलत की, पहचान नही
हो रहे हैं वे मुर्दे जैसे,
उन सबमे जैसे, जान नही

मर्दानगी दिखाते हैं, अबलाओं पर,
और कमजोरों , रोब दिखाते हैं
अपराधियों के सामने, पहन लेते हैं चूड़ियां,
और शेर से सियार बन जाते हैं

हो रहा घमण्ड है, लोगों को,
जैसे वे कोई, भगवान हों
चार दिनों का, जीवन है ये,
फ़िर सब की जगह तो, श्मसान ही है

हिंसा पर नींदा को,
वे अपना धर्म मान रहे हैं
हर समय पाप मे, रहते-रहते,
और अभिमान बड़ा है, मान रहे

हर बुरे कर्म का, बुरा नतीजा,
ये झूठ नही सच्चाई है
ईंषानियत के लिये, प्राण गंवाना,
ये जीवन की, बड़ी कमाई है

मोहन श्रीवास्तव (कवि)
15-08-2013,thursday,2pm,
pune,m.h(723).


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