मर रही है आत्मा, लोगों की,
उन्हें सही गलत की, पहचान नही ।
हो रहे हैं वे मुर्दे जैसे,
उन सबमे जैसे, जान नही ॥
मर्दानगी दिखाते हैं, अबलाओं पर,
और कमजोरों प,र रोब दिखाते हैं ।
अपराधियों के सामने, पहन लेते हैं चूड़ियां,
और शेर से सियार बन जाते हैं ॥
हो रहा घमण्ड है, लोगों को,
जैसे वे कोई, भगवान हों ।
चार दिनों का, जीवन है ये,
फ़िर सब की जगह तो, श्मसान ही है ॥
हिंसा व पर नींदा को,
वे अपना धर्म मान रहे हैं ।
हर समय पाप मे, रहते-रहते,
और अभिमान बड़ा है, मान रहे ॥
हर बुरे कर्म का, बुरा नतीजा,
ये झूठ नही सच्चाई है ।
ईंषानियत के लिये, प्राण गंवाना,
ये जीवन की, बड़ी कमाई है ॥
मोहन श्रीवास्तव (कवि)
15-08-2013,thursday,2pm,
pune,m.h(723).
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