छुक-छुक करती जाती रेल,
सबको अपनों से मिलाती रेल ।
सबको अपने जगह पहुंचाती,
इसका कोई नही किसी से मेल ॥
जाति-पाति ना कोई मजहब,
इसके लिये सब एक हैं ।
ना कोई बड़ा नही कोई छोटा,
इसके रूप अनेक हैं ॥
बच्चों के लिये ये कोई खेल,
इन्हें झूला खुब झुलाती है ।
नहीं किसी से इसका बैर,
ये हमें कई बातें सिखलाती है ॥
कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक,
ये सब जगह की सैर कराती है ।
तरह-तरह की बोली-भाषा,
और खान-पान का मजा चखाती है ॥
रेल बेचारी हम सबको देखो,
प्यार की नींद सुलाती है ।
नदी,पहाड़,जंगल व झरनें,
ये हम सबको खूब दिखाती है ॥
समय से चलना सब कोई,
ये हमे सिखलाती है ।
पर कभी-कभी ये अपनी प्रतीक्षा में,
हम सबको खूब छकाती है ॥
सुख-दुःख मे रहने की कला,
ये हमको देखो बतलाती है ।
सुख उन्हें जिन्हें आरक्षण है मिला,
और दुःख अनारक्षित कहलाती है ॥
रेलगाड़ी की तरह ही मित्रों,
हमारी जीवन की गाड़ी है ।
सब एक-एक करके चले जाते,
ये तो सवारी गाड़ी है ॥
मोहन श्रीवास्तव (कवि)
www.kavyapushpanjali.blogspot.com
11-09-2013,wednesday,11.25
a.m,(753),
pune-hatiya
expss. train
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