Monday, 19 February 2024

रेलगाड़ी

छुक-छुक करती जाती रेल,
सबको अपनों से मिलाती रेल
सबको अपने जगह पहुंचाती,
इसका कोई नही किसी से मेल

जाति-पाति ना कोई मजहब,
इसके लिये सब एक हैं
ना कोई बड़ा नही कोई छोटा,
इसके रूप अनेक हैं

बच्चों के लिये ये कोई खेल,
इन्हें झूला खुब झुलाती है
नहीं किसी से इसका बैर,
ये हमें कई बातें सिखलाती है

कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक,
ये सब जगह की सैर कराती है
तरह-तरह की बोली-भाषा,
और खान-पान का मजा चखाती है

रेल बेचारी हम सबको देखो,
प्यार की नींद सुलाती है
नदी,पहाड़,जंगल झरनें,
ये हम सबको खूब दिखाती है

समय से चलना सब कोई,
ये हमे सिखलाती है
पर कभी-कभी ये अपनी प्रतीक्षा में,
हम सबको खूब छकाती है

सुख-दुःख मे रहने की कला,
ये हमको देखो बतलाती है
सुख उन्हें जिन्हें आरक्षण है मिला,
और दुःख अनारक्षित कहलाती है

रेलगाड़ी की तरह ही मित्रों,
हमारी जीवन की गाड़ी है
सब एक-एक करके चले जाते,
ये तो सवारी गाड़ी है

मोहन श्रीवास्तव (कवि)
www.kavyapushpanjali.blogspot.com
11-09-2013,wednesday,11.25 a.m,(753),

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