मुखड़ा तुम्हारा ऐसा,जहां में न कोई हो ।
अंजान सी तुम बनके,कहां तो खोई हो ॥
मुखड़ा तुम्हारा ऐसा.......
किमती शराब तुम हो,मगर माटी के प्याले में ।
तुम रोशनी हो खुद ही,मगर रहती उजाले में ॥
मुखड़ा तुम्हारा ऐसा.......
तुम अनछुई कली हो,जो नजरों से दूर हो ।
तुम हो छुई-मुई या, और कोई हो ॥
मुखड़ा तुम्हारा ऐसा.......
तुम हो कोई गजल, जो रहती किताब में ।
गाता जिसे न कोई,न पढ़ता है ख्वाब में ॥
मुखड़ा तुम्हारा ऐसा.......
तुम देखना दीवारों में, खुद को तो छोड़ दो ।
अब आइने में देखके,जीवन को मोड़ दो ॥
मुखड़ा तुम्हारा ऐसा,जहा में न कोई हो ।
अंजान सी तुम बनके,कहां तो खोई हो ॥
मोहन श्रीवास्तव (कवि)
www.kavyapushpanjali.blogspot.com
23-06-2001,saturday,10:00pm,(498),
thoppur,dharmapuri,tamilnadu.
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