कैसी वो रात थी मेरे सुहाग की,
वो जब आए तो मै घबरा गई !
मुखड़े से घूंघट जब वो हटाने लगे,
लाज के मारे मै तो शरमा गई !!
कैसी वो रात थी मेरे सुहाग की....
कर ली बन्द पलकें अपनी आंखो की,
लमहा-लमहा वो मेरे करीब आ गए !
ले लिए अपनी आगोश मे ऐ सखी,
मेरे सोए हुए तो नसीब जाग गए !!
कैसी वो रात थी......
होश मे नही ,मै तो मदहोश थी,
चीर मेरे बदन से हटाते गए !
सिसकियां भरती मै जा रही थी सखी,
वो तो सावन की बदली सी छाते गए !!
कैसी वो रात थी......
चूड़ियां टूटती जा रही थी सखी,
बाल मेरे बिखरते चले जा रहे !
कानों के झुमके मेरे कहीं पे गिरे ,
पायल पांवो के बजते चले जा रहे !!
कैसी वो रात थी....
अधकली सी कली थी मै ऐ सखी,
मै बलम से मिली तो खिल ही गई !
बन गई हूं पिया की मै हम सफ़र,
उनको उस रात मे ही दिल दे गई !!
कैसी वो रात थी मेरे सुहाग की...
मोहन श्रीवास्तव (कवि)
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२०/८/२०९९ ,शुक्रवार,दोपहर २.१० बजे
चन्द्रपुर महा.
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