रो रहा आम आदमी है यहां,
आखों मे दिखती दहशत है ।
डरे-डरे से लोग यहां,
और सरकार से उनको नफरत है ॥
हर जगह लूट व भ्रष्टाचार,
मंहगाई मे सब जल रहे हैं ।
अपराधियों को कानून का डर ही नही,
वे अपनी मनमानी कर रहे हैं ॥
सरकारें अपनी नाकामी का बोझ,
जनता पर
बस डाल रही हैं ।
तरह-तरह के टैक्स लगाकर,
वे अपने पेट पाल रही हैं ॥
दहेज की आग मे जलती बहुएं,
व मंहगी शिक्षा से सभी त्रस्त ।
मर रहा आम आदमी है यहां,
पैसे वाले तो
सदा मस्त ॥
रो रहा आम आदमी है यहां....
मोहन श्रीवास्तव (कवि)
www.kavyapushpanjali.blogspot.com
२०-४-२०१३,शनिवार, १२.३५ दोपहर,
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